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कविता

रेलवे स्टेशन पर संगीत सभा

ओसिप मांदेल्श्ताम


असंभव है साँस लेना।
कीड़े-मकोड़ों से भरा है आकाश।
पर तारा एक भी नहीं बोल रहा।
ईश्‍वर देखता है -
हमारे ऊपर है संगीत
गानों की आवाज से काँप रहा है स्‍टेशन
इंजन की सीटियों
धुल-सी गयी हैं हवा की चिन्दियों में।

विशाल उद्यान ! स्‍टेशन जैसे काँच का ग्‍लोब।
लोहे की दुनिया सम्‍मोहित खड़ी है फिर से।
ध्‍वनियों के आस्‍वाद
और धुंध के स्‍वर्ग की ओर
विजयदर्प से भाग रही हैं गाड़ियाँ।

मोर की चीख। पिआनों की घड़घड़ाहट।
मैं देर से पहुँचा हूँ। मुझे डर लग रहा है। यह सपना है।

मैं प्रवेश करता हूँ स्‍टेशन के काँच के जंगल में।
घबड़ाहट-सी मची है वायलिन वादकों में,
वे रो रहे हैं।
रात की नर्तकमंडली का उन्‍मत्‍त आरंभ,
सड़ाँध भरे काँचघर में गुलाबों की महक,
यहीं काँच के आकाश नीचे
घुम्‍मकड़ भीड़ के बीच रात बिताई आत्‍मीय छाया ने।

संगीत और झाग से घिरी
भिखमंगों की तरह काँप रही है लोहे की दुनिया।
खड़ा होता हूँ काँच की आड़ के सहारे।
तुम किधर? प्रिय छाया की शोकसभा में
यह संगीत बज रहा हैं आखिरी बार।

 


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